Shirish Ke Phool MCQ शिरीष के फूल  MCQ Class 12 Hindi Aroh Chapter 17 part 2

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3 года назад

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Shirish Ke Phool MCQ शिरीष के फूल MCQ Class 12 Hindi Aroh Chapter 17

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शिरीष के फूल
हजारी प्रसाद द्विवेदी
जहाँ बैठके यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे पीछे, दाएँ-बाएँ, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निधूर्म अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गर्मी में फूल सकने की हिम्‍मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्‍वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आसपास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्‍वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्‍या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़ - 'दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास'। ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भरे। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक तो निश्चित रूप से मस्‍त बना रहता है। मन रम गया तो भरे वादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल पत्‍ते को देखकर मुग्‍ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ठूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्‍प मेरे मानस में थोड़ा हिल्‍लोल जरूर पैदा करते हैं।

शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत का रईस? जिन मंगल जनक वृक्षों को अपनी वृक्ष वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाया करता था, उनमें एक शिरीष भी है (वृहत्‍संहिता, 55। 3)। अशोक, अरिष्‍ट, पुन्‍नाग और शिरीष के छायादार और धनमसृण हरीतिमा से परिवेष्टित वृक्ष-वाटिका जरूर बड़ी मनोहर दिखती होगी। वात्‍स्‍यायन ने 'कामसूत्र' में बताया है‍ कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेंखा दोला) लगाया जाना चाहिए। यद्यपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्‍या बुरा है। डाल इसकी अपेक्षाकृत कमजोर जरूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वजन भी तो बहुत ज्‍यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम ख्‍याल नहीं करते। मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कर रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें।

शिरीष का फूल संस्‍कृत-साहित्‍य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू-शुरू में प्रचार की होगी। उनका इस पुष्‍प पर कुछ पक्षपात था (मेरा भी है)। कह गए हैं, शिरीष पुष्‍प केवल भौरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिल्‍कुल नहीं - 'पदं सहेत भ्रमरस्‍य पेलवं शिरीष पुष्‍पं न पुनः पतत्रिणाम्।' अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ? सिर्फ विरोध करने की हिम्‍मत न होती तो भी कुछ कम बुरा नहीं था, यहाँ तो इच्‍छा भी नहीं है। खैर, मैं दूसरी बात कह रहा था। शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है। यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्‍थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर धकियाकर उन्‍हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्‍थली पुष्‍प पत्‍न से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते है। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्‍हें धक्‍का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।

मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार लिप्‍सा क्‍यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्‍यु, ये दोनों ही जगत् के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्‍य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सचाई पर मुहर लगाई थी - 'धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।' मैं शिरीष के फलों को देखकर कहता हूँ कि क्‍यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है। सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासाप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्‍वमुखी है, वे टिक जाते है। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्‍यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-बुलते रहो, स्‍थान बदलते रहो, आगे की और मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
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